गांव का बचपन और बचपन की कुछ यादें
चलिये थोड़ा गांव का बचपन याद करते हैं…
जानते हैं ये क्या है ? हाहाहा… जितने लोग हमारे जैसे प्राइमरी स्कूल में पढ़े होंगे वो सब बहुत ही अच्छी तरह से इसे पहचानते होंगे। जी हां ये वही “बेहया” है जिसके बिना मास्टर साहब का सिखाया गया पाठ याद नहीं होता था।
मास्टर साहब पाठ सुनने के बाद सब बच्चो को दो लाइन में खड़ा करते थे और फिर बोलते थे जाओ जरा बढ़िया- बढ़िया, सुंदर- सुंदर बेहया का डंडा तोड़कर लाओ फिर ऐसा पाठ याद कराएंगे की कभी नहीं भूलेगा। इसके बाद तब तक डंडे पड़ते थे, जब तक सारे डंडे टूट नही जाते थे और इसके बाद तो जो पाठ याद होता था वो पूरी जिंदगी नही भूलता था। कमाल की बात तब होती थी कि डंडा तोड़ने उसी को भेजा जाता था जिसको मार खाना होता था। ये था बेहया का पहला उपयोग, अब दूसरा उपयोग सुनिये…!!
गर्मी की छुट्टियां पड़ते ही इस बेहये का उपयोग हम सब के लिए बढ़ जाता था लेकिन मार खाने के लिए नही बल्कि खेलने के लिए इस्तेमाल होता था। दोपहर में जब सब सो जाते थे तब सारी चंडाल चौकड़ी आम के बाग में इक्कठी होती थी और सबके घर से खेल में इस्तेमाल होने वाला सामान मंगाया जाता था । कोई घर से रस्सी लाता था, कोई तीखा चटपटा नमक, कोई चावल या मक्की का भुजा-नमकीन, कोई पानी लाता था तो कोई छोटे छोटे बर्तन लाता था।
इसके बाद फिर इस बेहये, रस्सी और घास फूस की मदद से सबसे पहले हमारी झोपड़ी बनती थी। ग्लूकोज की पाइप मिट्टी के मटके में डालकर नल बनाते थे। कच्चे आम तोड़कर उसका छिछला बनाकर उसमें मसालेदार तीखा नमक डालकर चटपटा खाना तैयार करते थे। सारे बच्चे अपने घर से कुछ न कुछ चुराकर खाने का सामान लाते थे। झोपड़ी बनाने के बाद मिलकर झूठ मूठ का खाना बनता था फिर मिलकर खाने का आनन्द लिया जाता था छककर पानी पीकर फिर खेल शुरू होता था। कोई पकड़मपकड़ाई खेलता था तो कोई लच्ची डारी का शौक रखता था।
सब अपने अपने खेल में मगशूल हो जाते थे और हम भाग दौड़ वाले सारे खेल से डरते थे तो हम पूरी दोपहरी नन्दन वन, चंपक , नागराज कॉमिक्स जैसे मनपसंद किताबो का आनन्द लेते थे। कितना सुहाना होता है बचपन कितनी सारी मस्ती और खुशियां लाती थी ये गर्मी की छुट्टियां कास वो दिन फिर से लौट आये कास हम सब फिर से बच्चे बन जाये…गांव का बचपन फिर से लौट आये !!
लेखिका: अरुणिमा सिंह (उर्मिला)
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