दो पीढ़ियों का अंतर – हमारा और हमारे बच्चों का बचपन
छोटा सा गांव मेरा, मुट्ठी भर लोग चारो तरफ धन धान्य से परिपूर्ण खेत, फलदार बाग, फूलों से भरे बगीचे, दूर तक हरी चादर ओढ़े जमीन, लबालब पानी भरे ताल तलैया और इस जन्नत जैसी जमी के बीच मेरा घर मेरा अपना घर और उस घर मे मैं इकलौती बच्ची जो दिन भर इधर उधर उछलकूद करती रहती थी । मेरा अपना जहाँ मैं अपनी मर्जी की मालकिन थी, हमारा बचपन।
मेरा घर एक छोर पर था और दूसरी छोर पर थी मेरी पसन्दीदा जगह जहां पंहुचकर मैं स्वप्नलोक में पहुँच जाती थी। मेरे घर पर मेरे दादा जी ने एक तरफ लाल कनेर दूसरी तरफ चाँदनी का पेड़ लगाया था, बीच में ट्यूबवेल के पानी की टँकी थी। जब एक पेड़ पर लाल कनेर दूसरे पर चांदनी के फूल खिले हुए होते थे तो छटा देखने वाली होती थी । दोनों पेड़ काफी बड़े थे, जो मेरे घर की तरफ आने वाले हर राहगीर को दूर से ही दिख जाते थे। उन फूलों के पेड़ों पर उछलकूद या टँकी की दीवार पर बैठना और गिरे हुए फूलों को चुनकर गहने बनाना फिर उन गहनों से खुद को सजाना। उन गहनों को पहनकर चाँदनी के फूल के नीचे बैठते थे जब चाँदनी के पेड़ फूल बरसाते थे तो खुद को राजकुमारी मानकर अकड़ना ।
कितना अलौकिक कितना अद्भुत कितना मनोरम दृश्य होता था कितनी सुखद अनुभूति होती थी। वो बचपन भी क्या हमारा बचपन था कितना प्यारा कितना निश्छल कितना निर्भय। आज बच्चो को देखकर सोचती हूं कि इन चंद सालो में बचपन बदल गया? हम बदल गए? या हमारा समाज इतना नीचे गिर गया है? आज का जो वातावरण है उस माहौल में हम बच्चो को बाहर खेलने नही जाने दे सकते है, बच्चे को जरा सा स्कूल से या ट्यूशन से आने में देरी हो जाए तो माता पिता की सांस अटक जाती है। हमारे बच्चों का बचपन।
गांव के लोग छोड़ो आज के समय में हम सब सगे रिश्तों पर भरोसा करने से कतराने लगे हैं। बच्चा कही भी जाता है अगर बच्चा वैन से स्कूल जा रहा हो तो वैन का ड्राइवर, स्कूल का टीचर, चपरासी हर किसी पर हमारी शंकित निगाह होती है जब बच्चा स्कूल से सकुशल घर नही आ जाता तब तक हम अनजाने भय से ग्रसित रहते हैं। कभी सोचा है कि यदि कुछ सालों में चीजे इतनी बदल गयी है तो आने वाले समय में क्या होगा? हम हमारी आने वाली पीढ़ी को क्या देगे ??
लेखिका: अरुणिमा सिंह (उर्मिला)