गुलाबो सिताबो: लॉकडाउन में चलो लखनऊ घूम आये
लखनऊ अदब /तहजीब और पहले आप वाला लब्बोलुआब केवल इतना ही नही है, लखनऊ की तहजीब के ऊपर बेहद कम फ़िल्म बनी है जिनमे से एक गुलाबो सिताबो है। लखनऊ की लोककला गुलाबो सिताबो दो कैरेक्टर हैं जो सौत है और उनमें नोक झोंक होती रहती है, इस नोकझोक को कठपुतली के खेल से दिखाया जाता है, फ़िल्म में भी दिखाया गया है, मुख्य किरदारों द्वारा भी और कठपुतली द्वारा भी।
इंडो पर्शियन स्टाइल में बना पुराना लखनऊ बड़ा इमामबाड़ा और रूमी दरवाजा जहाँ से मिर्जा (अमिताभ) कई बार गुजरते है , उस जमाने में ले जाते है जब लखनऊ की इबारत लिखी गयी थी जिसकी कहानी बांके (आयुष्मान) फ़िल्म में सुनाते है। बड़ा सा चोगा पहने मिर्जा जब उन गलियों से गुजरते है और मक्खनमार अवधी बोलते है तो लखनऊ की पुरातन भव्यता की पुष्टि सी होती दिखती है। फ़िल्म का मुख्य पात्र लखनऊ और अवधी है और क्योकि मिर्जा उर्फ अमिताभ और उनकी बेगम इस पात्र के सांचे में सबसे फिट बैठते है और अन्य सभी कलाकारों से भारी लगते है, इन दोनों के बीच और संवाद होने चाहिए थे। आयुष्मान अपने दायरे को समझते है और उसी के अंदर अभिनय भी करते है। कहानी थोड़ी सी धीमी और उलझी सी थी, लेकिन जब जब मिर्जा या बेगम दिखती है तो इस कमी को ढांप लेते है।
कहानी का सस्पेन्स अच्छा था और अन्य चरित्रों का सही उपयोग दिखता है। गाने याद रहने जैसे तो नही थे लेकिन उनकी पोजिशनिंग ठीक थी। सुरजीत सरकार ने बंगाली बाउल संगीत का इस्तेमाल भी किया है लेकिन लखनवी तहजीब इसको आत्मसात कर चुकी है।
आज तक हमे आलमआरा के बारे में पढ़ाया जाता था अब पहली OTT फ़िल्म के रूप में गुलाबो सिताबो को पढ़ाया जाएगा। OTT मीडियम उन बेहतर फिल्मो के लिये बेहतरीन प्लेटफार्म सेट कर सकता है जो कम बजट के कारण बॉक्सऑफिस पर नही टिक पाती थी लेकिन देर तक जेहन में रहने का माद्दा रखती है। कही ये शुरुआत तो नही पैरलर सिनेमा और कमर्शियल सिनेमा के माध्यम को अलग अलग कर देने का। बड़े बजट और VFX कल्चर वाली फिल्म न तो बड़े पर्दे का मोह त्याग सकेगी और न ही OTT प्लेयर्स अभी उस स्थिति में होंगे कि 100-200 करोड़ की मूवी को खरीद कर स्ट्रीम करें। खैर OTT से बेहतर लेकिन कम बजट वाली फिल्मो को अधिक लोगो तक पहुंचने का तरीका इस lockdown ने दे दिया है।
लेखक: मयंक मिश्रा (कानपुर)