क्या आप भूल गए वो दिन जब तख्ती लेकर स्कूल जाते थे ?

Olden school days Childhood Picture

पांचवीं कक्षा तक हम घर से तख्ती लेकर स्कूल (Olden Days School) जाते थे जिस पर खड़िया को घोल कर लिखते थे, साथ में गांव के कुछ और बच्चे भी होते, कुछ तो हमसे बड़े थे और कुछ छोटे। बड़ों में कुछेक के तो रेख भी आना शुरू हो गयी थी पर वो अभी पांचवी कक्षा में ही थे।

तख्ती पर लिखे अक्षर को थूक से मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें भीतर ही भीतर एक प्रकार का अपराधबोध भी था कि ये तो विद्या माता को नाराज करने वाला कम कर रहा हूँ।

पढ़ाई के तनाव में हम पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबा जाया करते या रबर को कुतर डालते। स्कूल में टाट पट्टी उपलब्ध न होने पर घर से बोरी का टुकड़ा बगल में दबा कर ले जाना भी हमारी दिनचर्या थी।

किताबों के बीच विद्या पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से हम पढाई में तेज़ हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास था।

कक्षा छः में पहली दफा हमने अंग्रेजी का ऐल्फाबेट पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी। उसके बाद, “नाउन इज दा नेम ऑफ एनी….” और “माई नेम इज….” बोलना भी बड़ी तन्मयता से सीखा था।

यह बात अलग है बढ़िया स्मॉल लेटर बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था, और करसिव राइटिंग भी हम कॉलेज जाकर ही सीख पाये।

उस जमाने के बच्चों की अपनी एक अलग ही दुनिया थी, स्कूल से आने के बाद गिल्ली-डंडा और कंचे खेलने में व्यस्त हो जाते। पिता जी के पुराने पैंट के कपड़े से बने थैले में किताब कॉपियां जमाने का विन्यास भी हमारा रचनात्मक कौशल था।

तख्ती पर कालिख पोतने और घोटारने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के लिए बस्ते तैयार करते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना और डोनाल्ड डक वाली नेम स्लिप लगा के नाम लिखना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव था।

हमारे समय में ट्यूशन पढ़ना हीनता का द्योतक हुआ करता था। अगर कोई ट्यूशन पढ़ता था तो उसे नालायक समझा जाता था। मेरा भी व्यक्तिगत यही मानना था क्यों की हमारे पास ट्यूशन के लिए पैसे नहीं होते थे।

माता पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी। न हमारी पढ़ाई उनकी जेब पर बोझा थी। सालों साल बीत जाने पर भी पर माता पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे।

सफेद शर्ट और खाकी पैंट में जब हम माध्यमिक कक्षा (Olden Days School) में पहुंचे तो पहली दफा खुद के बड़ा होने का अहसास हुआ। उसके पहले तो पाजामे और हाफ पैंट में ही गुजारा हो गया था। पैंट पहन कर हम अपने आपको किसी फ़िल्मी हीरो से कम नहीं समझ रहे थे, हालाँकि घरवालों के सामने थोड़ा संकोच भी कर रहे थे।

साईकिल चलाना भी हम ३ चरणों में सीखे थे। पहले कैंची फिर डंडा और अंत में गद्दी पर बैठना आया था। फिर तो पीछे कैरियर पर बैठ कर भी हम साईकिल चला लेते थे।

अपने दोस्तों को साईकिल के डंडे पर या पीछे कैरियर पर बिठा हमने गांव की पगडंडियों पर खूब साइकिल दौड़ाई है। कितनी बार साइकिल से गिरे भी, यह सब अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां शेष हैं।

स्कूल (Olden Days School)में मार खाते हुए और मुर्गा बनते हमारा ईगो हमें कभी परेशान नहीं करता था। दरअसल हम जानते ही नहीं थे कि ईगो होता क्या है। पिटाई हमारे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी जिसे हम हँसते हुए सह लेते थे। क्लास की पिटाई का गम कुछ ही देर में काफूर हो जाता और हम अपने पूरे खिलंदड़ेपन से हंसते पाए जाते।

उस जमाने के बच्चों को सपनें देखने का सलीका भी नहीं पता था। हम अपने माता पिता से बहुत प्यार करते हैं, पर कभी उन्हें बता नहीं पाए क्योंकि हमें आई लव यू कहना सिखाया नहीं गया।

हम गिरते सम्भलते और अपने लक्ष्य के लिए संघर्ष करते जीवन में आगे बढ़ रहे हैं। कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ अभी भी जिंदगी की जद्दोजेहद में उलझे हैं।

हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है कि हमने वो सब देखा और किया है जो आज के बच्चों के लिए सपना है, आज कोई माँ बाप चाह कर भी अपने बच्चों को वैसा जीवन नहीं दे सकते।

कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया। हम तो हमेश यही समझते रहे कि हम जैसे भी है सबके लिए अच्छे हैं। इस बात से बेफिक्र कि कोई हमारे बारे में गलत सोच ही नहीं सकता। इस मामले में हम सदा मूरख ही रहे।

हम सब अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं। शायद ख्वाब देखना ही अब हमारी नीयत बन गयी है वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं, उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं। ऐसे जीवन से तो वो बचपन लाख गुना अच्छा था। लेकिन हम यह भी जानते हैं वो समय कभी नहीं लौटेगा।।

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