जनसंख्या नियंत्रण बिल: अचानक से इस मुद्दे ने क्यों हवा पकड़ी
पिछले एक दो वर्षो से जनसंख्या नियंत्रण पर एक बड़ी चर्चा विभिन्न पटल पर उभर कर आ रही है और ये चर्चा यूँ ही नही उभर कर आई है। जनसँख्या के ऊपर आंकड़े हर 10 साल में आते रहते है। पिछले आंकड़े 2011 में आये थे लेकिन अब अचानक से इस मुद्दे ने हवा पकड़ी इसके दो मुख्य कारण दिखाई देते है। पहला नागरिकता संसोधन कानून जिसके छद्म में मुस्लिम जनसंख्या से जुड़ी गलत सही जानकारियां साझा की गई और दूसरा इसी परिपेक्ष्य में प्राइवेट मेंबर बिल। काफी विवादों से घिरा CAB अब सच्चाई है और प्राइवेट मेंबर बिल की संसद में क्या हैसियत है, ये कोई भी संविधानविद आराम से बता सकता है। तो जरूरी ये है कि ये मुद्दा किसी भी तरह से राजनीतिक न हो, जिसकी बहुत ज्यादा संभावना दिखती है। एशिया के तीन देश चीन, भारत और इंडोनेशिया की जनसंख्या विश्व की 25% जनसंख्या के बोझ को झेलते है, यहाँ के प्रचुर संसाधन जो कही न कही इसकी छूट देते है, अब प्रति व्यक्ति उनकी पहुँच सीमित होती जा रही है।
भारत पिछले 50 सालो से अप्रत्याशित जनवृद्धि दर से जूझ रहा है और आशा है कि अगले 5-7 सालो में ये चीन को पीछे छोड़ देगा। लेकिन सवाल ये है कि इसका कारण क्या है और किस तरह का कानून हमें चाहिए। जनसंख्या वृद्धि के ऊपर माल्थस के सिद्धांत को यदि प्रतिपादित किया जाए तो किसी समाज में जनसंख्या geometrical series (ज्यामिति गुणन वृद्धि) और संसाधन linear progression (जोड़ वृद्धि) की दर से बढ़ती है और जब एक threshold स्थिति आ जाती है तो संसाधनों की कमी से जनसंख्या वृद्धि पर विपरीत प्रभाव दिखता है। भारत में ये स्थिति 1960 के दशक से पहले दिखती है जब खाद्य, चिकित्सा और भूमि पर दबाव बहुत ज्यादा था और भारत अपनी तात्कालिक जनसंख्या के नीचे दबा जा रहा था।
ये आश्चर्य की बात नही कि विश्व में जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम-1952 सबसे पहले भारत में चला, तत्कालीन भारत में जनसंख्या नियंत्रण के साथ साथ कृषि विकास, उद्योग विकास और अर्थ विकास के अनेकों कार्यक्रम चले जिन्हें 1960 के दशक में तीव्रता मिली। हरित क्रांति ने तो माल्थस के सिद्धान्त को भारत में कई वर्ष आगे धकेल दिया। आज भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर ही नही बल्कि निर्यातक भी है। एक दूसरा सिद्धान्त मार्क्स का है जो जनसंख्या को समाजवाद की नज़र से देखते है। उनके हिसाब से जनसंख्या दो तत्वों से मिलकर बनी है पहला उद्यमी और दूसरा श्रमिक। पहला वर्ग जिसकी संख्या कम है लेकिन अधिकांश पूंजी पर उसका कब्जा है, अपना लाभ बढ़ाना चाहता है जिसके लिए वो श्रम की दर को कम रखना चाहता है। इसके लिए वो चाहेगा कि बाजार में श्रमिक जनसंख्या ज्यादा हो। दूसरा वर्ग जो कि अपने श्रम को बेचकर अपनी आजीविका चलाता है, चाहेगा कि उसके घर में श्रम बल ज्यादा हो जिससे ज्यादा आजीविका आये। ये दोनों स्थितियां जनसंख्या वृद्धि को प्रेरित करती है।
माल्थस और मार्क्स जैसे महान चिंतको की व्याख्या हर समय के लिए दुरुस्त है, इनमे कुछ विछोभ आपदा और प्रबोधन के समय दिखता है लेकिन ये केवल समय या दर को कुछ देर के लिए टाल या बदल तो सकता है लेकिन रोक नही सकता। भारत भी इसी कसौटी से गुजर चुका/रहा है। देश का जनसंख्या विस्फोट किसी धर्म और जाति से परे है। अशिक्षा और गरीबी एक बड़ा कारण है लेकिन केवल यही एक कारण नही है। शिक्षित बेटे की चाह में कई पुत्रियों को जन्म देते है। 2011 का डेटा ये बताता है कि जंगलो में रहने वाले आदिवासी समुदाय में स्त्री-पुरुष अनुपात 990/1000 और शहरों में रहने वाले पढ़े लिखे लोगो का 904/1000 था। देश के 600 शहरों में आबादी का दबाव 31% और 6 लाख गांव में 69% था। कृषि जो GDP का मात्र 15% है उस जीविका पर 55% लोगो का सीधा दबाव पाया गया।
अगर उपाय की बात की जाए तो हम दो- हमारे दो नारे को नई लगन के साथ लागू करने की जरूरत है। देश की 60% जनसंख्या श्रमिक और कृषि क्षेत्र से आती है जिनपर मार्क्स का सिद्धांत लागू होता है, उन्हें जनसंख्या नियंत्रण के पारितोषिक की जरूरत है, जो श्रममूल्य के बराबर हो। नौकरीपेशा वर्ग को किसी भत्ते की जगह बच्चो की शिक्षा और चिकित्सा के लिए राहत या पुनर्भरण मूल्य जो कि दो बच्चो पर ही लागू हो। न्यूनतम मजदूरी कानून का सख्ती से पालन सुनिश्चित करना। लिंग आधारित सामाजिक कुरीतियों जैसे दहेज का सख्ती से नाश करना। बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की शहरों और गांवो में पहुंच।
लेखक: मयंक मिश्रा (कानपुर)
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