आर्थिक मंदी और आय की सुरक्षा – वैश्विक महामारी के ख़तरे का सामना
जर्मनी के क़ुर्ज़रबेट की एक स्कीम की ओर देखने का समय शायद अब आ चुका है (Recession and epidemic)।
अगर पिछली एक सदी की ओर देखा जाए तो ये माना जाता था कि हर एक दशक में कम से कम एक बार आर्थिक मंदी आती है। वैश्विक आर्थिक इतिहास की अवधारणा ब्रिटेन के औद्योगिक विकास फिर कच्चे माल की खोज ,बाजार की खोज से बढ़ कर उपनिवेशवाद तक पहुंची।
Recession and epidemic:
20 सदी के आते आते यूरोप से अधिकार छिन कर रूस और अमेरिका तक पहुंचा और इन तीनो के रास्ते और तरीक़े अलग दिखे। 20 सदी के पूर्वार्ध में प्रथम विश्व युद्ध, महान आर्थिक मंदी और फिर दूसरा विश्व युद्ध मंदी के सबसे बड़े कारण थे। मतलब मंदी तब दिखती थी जब कारण बड़े हो। इनमें भी पहले और तीसरे कारण को अमरीका और रूस के उदय के रूप मे देखना चाहिए। दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका तो हथियार बेच कर लाभ कमा रहा था और बहुत बाद में युद्ध मे उतरा, मतलब वास्तविक मंदी तो 1931 की थी।
विश्व युद्ध के बाद दुनिया दो ध्रुवो में बंट गयी। अमरीका के पूंजीवाद और रूस के समाजवाद। बड़ी तेजी से अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण होने लगा और जहां एक ओर कामगारों की काम करने की स्थितियों को बेहतर बनाने की कोशिश हुई तो वही हर एक छोटी बड़ी घटना मंदी को न्योता देने लगी। वियतनाम युद्ध, परमाणु अप्रसार संधि, क्यूबा संकट, तेल संकट हर दशक में ऐसी घटनाएं विश्व की अर्थव्यवस्था को पीछे खींच लेती थी।
Recession and epidemic का भारत पर प्रभाव:
भारत इस व्यवस्था का हिस्सा 1991 में बन गया और तब से CTBT को लेकर अमेरिकी बैन, 2008 की वैश्विक मंदी, क़तर-ईरान बैन, चीन-अमरीका ट्रेड वॉर, कोरोना हर घटना अर्थव्यवस्था पर एक ब्रेक की तरह काम कर रही है। इनके अलावा घरेलू नीतियां भी संदेह के घेरे मे रही है।
भारत की growth को पिछले पांच सालों में jobless growth का तमगा मिला है, खुद सरकारी आंकड़े बताते है कि बेरोजगारी अपने इतिहास के चरम पर है। ऐसे मे इस तरह के ब्रेकर अर्थव्यवस्था के शॉक आब्जर्बर को तोड़ दे रहे है और सबसे ज्यादा शॉक निचले तबके के कर्मचारी को उठाना पड़ता है जिसे एक नोटिस देकर घर बैठा दिया जाता है क्योकि संस्था के पास उससे लेने के लिए काम नही है।
सरकार को क़ुर्ज़रबेट स्कीम को एक बार पढ़ लेना चाहिये जिसमे निकाले गए कर्मी को शार्ट टर्म सर्विसेज स्कीम के अंतर्गत मदद दी जाती है। इससे कर्मी की छटनी नही होती औऱ 60-67% वेतन उसे मिलता रहता है। जर्मनी हमेशा से समाजवाद की नीति के ज्यादा पास रहा है, रूर और सार जैसे क्षेत्रों मे कामगारों का जमघट होता है। इस जमघट में इन मेहनतकश चेहरों को श्रम औऱ उसके बदले आय की सुरक्षा देने के लिए जर्मन सरकार को बधाई जिसने 2008 की मंदी के बाद 2012 मे ऐसा कानून बना लिया।
लेखक: मयंक मिश्रा (कानपुर)
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