कोरोना और लॉकडाउन का आर्थिक पक्ष: भाग- 1
पर्यावरण के बाद उस मुद्दे पर चर्चा करते हैं, जिसपर आज पूरी दुनियाँ टिकी हुई है, जो आज सारी उन्नति का पैमाना बन चुका है…..अर्थात अर्थिक पक्ष. और इस विषय पर सबसे पहले वैश्विक स्तर पर चर्चा करेंगे.
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वैश्विक आर्थिक प्रतिस्पर्धा और संसाधनों का दोहन:
दूसरे विश्वयुद्ध की महा-तबाही के बाद अमेरिका और युरोप को काफी कुछ अकल आ गई थी. इसीलिये उन्होनेँ परस्पर युद्ध खत्म करने के लिये वैश्विक संगठन का निर्माण किया और ये तय किया कि अब से कोई भी देश दूसरे देश पर हमला करके कब्जा नहीं कर सकता. इस तरह से उपनिवेशवाद का अंत हुआ. साथ ही रंगभेद समाप्त कर गोरे-काले को समान अधिकार दिया. इससे दुनियाँ में परस्पर सम्बंध में सुधार तो अवश्य हुआ, लेकिन इससे उपनिवेशवाद का पूरी तरह से खात्मा नहीं हो पाया, बल्कि उसका रूप बदल कर आर्थिक दोहन द्वारा उपनिवेशवाद का नया रूप सामने आया.
अमेरिका और युरोप नेँ कई देशो को परस्पर लडाने-भिडाने का काम करके दुनिया भर में अपने हथियार बेच कर खूब पैसा कमाया. दूसरी तरफ दवा/स्वास्थ्य के नाम पर भी खूब लूट मचाई. रूस को तोडने के लिये और तेल के खेल में आतंकवाद पैदा किया गया और दुनिया में अफरा-तफरी मचा कर आर्थिक दोहन किया गया. इसी की अगली कडी में वर्ल्ड ट्रेड ओर्गनाइजेसन, जेनेवा पैक्ट, ग़ैट, जी 20 आदि का गठन किया गया, जो कि पश्चिमी देशो के हित में था. उन्नति के नाम पर अमेरिका ने सभी देशो के संसाधनो और प्रकृति के अंधाधुंध दोहन में मुख्य भूमिका निभाई. उसने गरीब देशो को पहले तो विकास के लिये खूब लोन दिया, और उसके बाद उस लोन को ब्याज सहित चुकाने के लिये उनका खूब दोहन किया. हालांकि विज्ञान की खूब-खूब उन्नति हुई, प्रकृति के संसाधनोँ का सदुपयोग भी हुआ और जीवन बेहद आसान, सुविधापूर्ण भी हो गया.
लेकिन अब कोरोना के इफैक्ट से वैश्विक अर्थशाष्त्र की नई किताब लिखी जायेगी.
ट्रेडिशन आयुध, लडाई के हथियार बेकार हो जायेंगे, रासायनिक विषाणु आधारित हथियारोँ का युग तो पहले ही शुरु हो चुका है. इस तरह से परमाणु युद्ध की जगह अब रासायनिक युद्ध ले लेगा. भारत जैसे देश की सरकार को चाहिये कि अब विदेशोँ से हथियार खरीदने के लिये खरबोँ की विदेशी पूंजी खर्च करना बंद कर दे. लेकिन शायद ऐसा होगा नहीं, क्योंकि इसमे सरकारोँ को घोटाले करने का खूब अवसर प्राप्त होता है क्योंकि सुरक्षा के नाम पर इन खर्चो को डिस्क्लोज नहीं किया जाता.
आत्मनिर्भरता से आर्थिक उन्नति:
आत्मनिर्भरता 21वी सदी का सबसे भद्दा मजाक है. वैश्वीकरण के दौर में जब सारी दुनियाँ एक गांव में परिवर्तित होती चली जा रही है, कुछ भी लोकल नही होता है, जो होता है वह सब ग्लोबल ही होता है, आर्थिक लाभ-हानि आधारित ही होता है.आज सारी की सारी दुनियाँ अर्थतंत्र की वैसाखी पर टिकी हुई है, सभी देशोँ के बीच की मित्रता भी अपने-अपने आर्थिक हितो आधारित सीमित हो चुके हैं. जापान इसका सबसे बडा प्रत्यक्ष उदाहरण है.
द्वितीय विश्वयुद्ध की सबसे बडी त्रासदी झेलने और चीन और कोरिया की दुश्मनी से घिरा होने के बावजूद भी आज के दिन मजाल है कि कोई जापान को आंख दिखा सके…….. इसका एकमात्र कारण है, समस्त विश्व में उसकी आर्थिक उपादेयता. दूसरा उदाहरण सिंगापुर है, जिसका समस्त अर्थशाष्त्र वैश्विक व्यापार पर ही आधारित है और आज वह पिद्दी सा (दिल्ली से भी छोटा) राष्ट्र दुनियाँ की तीसरी अर्थव्यवस्था बन चुका है, फिर भी उसका कोई भी दुश्मन नहीं. और यही इस महाविकट घडी में भी आत्मनिर्भरता का आधार है, जिसके बेस में एक ही बात लागू होती है….और वो ये कि जिस देश का निर्यात उसके आयात से ज्यादा होगा, वही उन्नतिशील होगा. इसी को व्यापार संतुलन कहा जाता है, जिसे रेवेन्यु आय-व्यय कहा जाता है और दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है भुगतान संतुलन. इसका बेस ऋण और उस पर पडने वाला ब्याज होता है, जिसे कैपिटल बैलेंस शीट कहा जाता है.
भारत की स्थिति (तुलनात्मक):
दुर्भाग्य से भारत की स्थिति ये है कि पिछले सालोँ में हमारा एक्स्पोर्ट निरंतर घटता चला जा रहा है और आयत निरंतर बढता जा रहा है. इसी को ट्रेड डेफिसिट कहते हैं. दूसरी तरफ हमारी सकल आय का एक बडा हिस्सा जिन मदोँ में खर्च हो जाता है, वो हैं विदेशी ऋण और उस पर देय ब्याज. आपको आश्चर्य होगा कि हमारे बजट का सबसे बडा हिस्सा ऋण अदायगी में ही खर्च हो जाता है, ऊपर से ब्याज जोड ले तो करीब एक-तिहाइ बैठ जाता है. दूसरा मद है तेल का आयात क्योंकि 80% तेल आयातित है. ये तो गनीमत है कि इस वक्त तेल के दाम मट्टी के भाव हो चुके हैं. ये एक बेह्तर संकेत है. तीसरा मद है हमारे बजट का एक बडा भाग, जो हथियार आयात में खर्च होता है, जिसपर मैं पिछली पोस्ट पर लिख चुका हूँ.
लेकिन आज के दिन सारी दुनियाँ आर्थिक रूप से कमजोर हो चुकी है कि शायद ही कोई देश दूसरे देश पर किसी भी तरह का हमला कर सके, इंटरफेयर कर सके….यहाँ तक कि अमेरिका की दादागिरी भी खत्म होने को है.
वैश्विक आर्थिक विकास का करक पक्ष:
एक बात नोट कर लीजिये कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी तरह से तबाह हो जाने के उपरांत युरोप की आश्चर्यजनक प्रगति तभी सम्भव हो पाई, जब परस्पर कट्टर युरोपीय राष्ट्र आपसी कटुता को भुला कर एक दूसरे के साथ घुलमिल जाने को मजबूर गये, यहाँ तक कि अपनी सीमायेँ भी एक-दूसरे के लिये खोल दी, जिसे शोर्ट में “सिंजेन कंट्रीज” कहा जाता है. और तो और, अपनी कोमन मुद्रा “युरो” भी ले आये. और सबसे बडा आश्चर्य……. एक-दूसरे के कट्टर शत्रु बन चुके दोनोँ जर्मनी भी अंततः एक हो गये. ये वही जर्मनी है, जिसे हिट्लर ने पूरा बर्बाद कर दिया था और जर्मन को दो भागो में विभक्त कर दिया था.
हमें इससे बहुत बडा सबक लेना चाहिये और कोरोना से त्रस्त वर्त्मान समय में पाकिस्तान से समस्त कटुता भुलाकर, आपसी झगडे की जड कश्मीर का मुद्दा हल करने के लिये LOC को ही दोनो देशो को अपनी-अपनी सीमा मान लेना चाहिये. तभी दिवालियाप्रायः हो चुका हमारा देश फिर से खडा हो पायेगा.
वैसे भी देखा जाये, तो आजादी के समय कश्मीर मुस्लिम बाहुल्य वाला एक अलग देश था. इसलिये पूरा ना सही, आधे पर ही संतुष्ट हो जाना आज के समय की मांग है. हमें देखना चाहिये कि आजादी से आज तक कश्मीर के नाम पर हम लाखोँ खरब रुपये खर्च कर चुके है, आगे भी लाखोँ खरब खर्च कर देंगे और अंत में भी …. हासिल कुछ भी नहीं होगा.
एक बात गौर से समझ लीजिये कि कश्मीर का कांटा बनाकर मुद्दा बनाकर उलझाये रखने में दोनो देश की जनता की मंशा नहीं, जनता को तो कुछ खास मतलब ही नहीं, बल्कि कश्मीर समस्या तो दोनो देशोँ के हुक्मरानोँ की सत्ताप्राप्ति की मजबूरी मात्र है, जिसके लिये वे अपने-अपने देश को युद्ध की आग की तबाही में झोंके रखने में जरा भी परहेज नहीं कर रहे………….भले ही देश तबाह हो जाये, सत्ता हासिल होनी चाहिये.
एक बात साफ-साफ समझ लीजिये कि आप तभी सुखी रह सकते हैं, जब आपका पडोसी भी सुखी-सम्पन्न रह पाये. इसलिये कोरोना से त्रस्त यही सही समय है कि दोनोँ देश की जनता अपने-अपने हुक्मरानोँ को मजबूर करे ताकि वह लाखोँ खरब रुपये देश को वापस खडा करने के काम आये.
आगे अगले अंक में.
लेखक: कमल झँवर, सोशल एक्टिविस्ट, नेचुरोपैथ व लाइफस्टाइल कंसल्टेंट
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