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व्यापार की ये चार कड़ियां: भूमि, पूंजी, श्रम और उद्यम – श्रमिक दिवस विशेष

व्यापार की ये चार कड़ियां: भूमि, पूंजी, श्रम और उद्यम - श्रमिक दिवस विशेष

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भूमि, पूंजी, श्रम और उद्यम – किसी भी व्यापार की ये चार कड़ियां जो 18वी शताब्दी में आत्मसात की गई थी, आज भी उतनी ही सार्थक है। समय के साथ भूमि की परिभाषा में परिवर्तन आया है और इसकी व्यापकता पूंजी की परिभाषा से जा कर मिलने लगी है। लेकिन श्रम और उद्यम एक चट्टान की तरह अटल दिखते है।
कल श्रमिक दिवस था और मैं कल ही कुछ लिखना चाहता था लेकिन व्यस्तता की वजह से लिख नही सका। विश्व कोरोना से जूझ रहा है और साथ ही उद्यम और श्रम भी। जिन देशों में Lockdown है वहां उद्यम का अनिश्चितता से भरा पॉज और श्रम का मजबूर पलायन दिख रहा है। लेकिन दोनों की स्थिति हमेशा एक सी नही रही है, श्रम को उद्यम से ज्यादा संघर्ष करना है।

1886 का वर्ष था , शिकागो के Haymarket में श्रमिकों का एक जुलूस जा रहा था, जिनकी मांग थी – काम के घंटे नियत करना, उचित पारिश्रमिक और फैक्टरियों में अनुकूल स्वस्थ वातावरण। इन श्रमिको पर पुलिसिया कार्यवाई की गई, कुछ श्रमिक और कुछ पुलिस वाले मारे गए। बाद में इन श्रमिको और पुलिस के मारे गए लोगो को शहीद का दर्जा दिया गया।

यही वक़्त था जब भारत में भी मजदूर आंदोलन तेज हो चुके थे और आने वाले समय के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ये तैयार हो रहे थे।
प्रथम विश्व युद्ध और रूस के उत्थान ने साम्यवादी और समाजवादी लक्षणों के इंजेक्शन को विश्व राजनीति की नसों में उतार दिया था। मजदूरों को लेकर पहली बार कोई दिन तय किया गया और एक मई को श्रमिक दिवस का तमगा मिल गया। इस दिन को श्रमिको का अवकाश किया जाता था जिस दिन वे सड़को पर विभिन्न आयोजन और एकता जुलूस निकालते थे। काम करने के घंटे, रविवार की छुट्टी और श्रमिक यूनियन जैसी उपलब्धिया इन कई वर्षों के प्रयास का फल था।

लेकिन जब मजदूर अपना अधिकार मांगता है तो उद्यम स्थापित करने वाले पूंजीपतियों को अपना लाभ कम होता दिखने लगता है। सामूहिकता और व्यक्तिगत लाभ की लड़ाई तब भी थी और अब भी। तब व्यक्तिगत लाभ लेने वाले अंग्रेज उपनिवेशक थे और अब कुछ बिज़नेस घराने। तब सिंगरवेलर जैसे नेता थे जिन्होंने मजदूर कृषक पार्टी के द्वारा उनकी आवाज उठाई। राम मनोहर लोहिया थे जो समाजवाद के वास्तविक चरित्र के पोषक थे।
अब राजनीति एकात्म हो गयी है। मजदूरों के पलायन को लेकर चिंता है लेकिन मजदूरी को लेकर नही। कितने मजदूरों को न्यूनतम वेतन पर काम मिलता है, कितनी संस्थाओं ने इनका EPF और बीमा करा रखा है। जब रिलायंस-फेसबुक डील अखबारों के पहले पेज पर थी तो MSME सेक्टर के पास वित्त विहीनता की खबर गायब क्यो थी। अगली पंक्ति में दिखने वाला मजदूर पिछली पंक्ति में दिखता है। भारत एक लोकहितकारी राज्य है, सरकारे कुछ रुपये मजदूर के एकाउंट में भेज रही है ये अच्छी बात है।

लेकिन ऐसी क्या मजबूरी है इनकी कि लाख दावों और वादों के बाद भी पलायन नही रुक रहा। क्या ये पलायन इन दो महीनों का ही है या इसके पहले नही हो रहा था और इसके बाद नही होगा और क्या मजबूरी थी देश, प्रदेश सरकार की Lockdown की दो मियाद खत्म होने यानी 40 दिन बाद मजदूरों की सुध आयी और इन्हें अपने घर पहुंचाने के लिए ट्रेन और बस का इंतजाम किया गया।

लेखक: मयंक मिश्रा (कानपुर)

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